हर साल 20 अगस्त को विश्व मच्छर दिवस मनाया जाता है। यह दिन उस खोज की याद में मनाया जाता है जब वैज्ञानिक सर रोनाल्ड रॉस ने मलेरिया के वाहक मच्छर की पहचान की थी। इस खास अवसर पर रायपुर की एक ऐसी रिसर्च लैब की चर्चा करना जरूरी है, जहां मच्छरों को पाला जाता है और उनके व्यवहार, जीवन चक्र व बीमारियों से जुड़े प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। यह लैब नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मलेरिया रिसर्च (NIMR) की फील्ड यूनिट है और यहां वैज्ञानिक दिन-रात मेहनत कर मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी घातक बीमारियों पर नियंत्रण के उपाय खोज रहे हैं।
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मच्छरों की परवरिश से रिसर्च तक का सफर
रायपुर के लालपुर इलाके में स्थित इस लैब में मच्छरों को अंडे से लेकर लार्वा, प्यूपा और फिर एडल्ट अवस्था तक खास देखभाल के साथ पाला जाता है। वैज्ञानिक बताते हैं कि मच्छरों को पालना आसान काम नहीं है। उनके लिए बिल्कुल वैसा ही माहौल बनाया जाता है जैसा बरसात के मौसम में होता है। इसके लिए तापमान और नमी (Humidity) को कंट्रोल किया जाता है। यही वजह है कि यहां मच्छरों की कॉलोनियां लंबे समय तक जीवित रहती हैं और उन पर गहराई से अध्ययन संभव हो पाता है।
मच्छरों की नई बैच हर हफ्ते तैयार की जाती है। इन कॉलोनियों का उपयोग मलेरिया और डेंगू की दवाओं की टेस्टिंग में किया जाता है। वैज्ञानिक उनके व्यवहार, खून चूसने की आदत, प्रजनन चक्र और विभिन्न दवाओं के प्रभाव का अध्ययन करते हैं।
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क्यों पाले जाते हैं मच्छर?
छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग मलेरिया से सबसे ज्यादा प्रभावित है। प्रदेश में करीब 90% मलेरिया के मामले मादा एनोफिलीज कुलिसीफेसिस प्रजाति के मच्छरों से होते हैं। यह प्रजाति खासकर सुकमा, दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर, बस्तर, कोंडागांव और कांकेर जिलों में ज्यादा सक्रिय है।
लैब में इन मच्छरों को पकड़कर लाया जाता है और उनका अध्ययन किया जाता है कि कौन-सी दवा या कीटनाशक इन पर असरदार है। साथ ही यह भी जांचा जाता है कि समय के साथ मच्छरों में दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता (Resistance) तो विकसित नहीं हो रही है।
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नर और मादा मच्छरों की अलग दुनिया
लैब में नर और मादा मच्छरों को अलग-अलग रखा जाता है। नर मच्छरों को सिर्फ ग्लूकोज खिलाया जाता है, जबकि मादा मच्छरों को रिसर्च के लिए इंसानी खून फीड कराया जाता है। वैज्ञानिक बताते हैं कि हर एनोफिलीज मच्छर मलेरिया नहीं फैलाता। संक्रमण तभी फैलता है जब मच्छर पहले से संक्रमित किसी इंसान को काटे और फिर दूसरे व्यक्ति को। यानी मच्छर खुद बीमारी नहीं बनाते, बल्कि उसे एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाते हैं।
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वैज्ञानिकों का अनोखा तरीका
लैब में वैज्ञानिक बहुत ही सावधानी से मच्छरों को पकड़ते हैं। इसके लिए वे पतली कांच की ट्यूब का इस्तेमाल करते हैं और अपने मुंह से हल्की सांस खींचकर मच्छरों को ट्यूब में कैद कर लेते हैं। खास बात यह है कि ट्यूब में लॉक सिस्टम होता है जिससे मच्छर सीधे मुंह में नहीं पहुंच पाता। इसके अलावा लाइट ट्रैप और अन्य आधुनिक तकनीकों से भी मच्छर पकड़े जाते हैं।
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लैब के कर्मचारी और मच्छरों का रिश्ता
इस लैब में काम करने वाले रमेश शर्मा पिछले 20 साल से मच्छरों के बीच काम कर रहे हैं। वे कहते हैं कि मच्छर उनके लिए खतरनाक नहीं, बल्कि साथी जैसे हैं। उन्होंने हजारों मच्छरों को अंडे से लेकर वयस्क बनने तक पाला और बढ़ते हुए देखा है। उनके अनुसार, लैब को मेंटेन करना बड़ी जिम्मेदारी है क्योंकि हर स्टेप पर देखभाल जरूरी होती है।
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मच्छरों की प्रजातियां और रिसर्च का फोकस
दुनिया में करीब 3500 से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से लगभग 400 प्रजातियां एनोफिलीज वर्ग की हैं, और करीब 100 प्रजातियां मलेरिया फैलाने में वाहक की भूमिका निभाती हैं। छत्तीसगढ़ में खासकर एनोफिलीज स्टीफेंसाई और एनोफिलीज कुलिसीफेसिस पर रिसर्च की जा रही है।
इसी के साथ, डेंगू फैलाने वाले एडिस मच्छरों को भी यहां पाला जा रहा है ताकि बीमारी की रोकथाम के लिए प्रभावी रणनीति बनाई जा सके।
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रिसर्च से मिल रही बड़ी सफलता
रायपुर की इस लैब की रिसर्च से प्रदेश में मलेरिया के मामलों में उल्लेखनीय कमी आई है। पहले जहां बस्तर क्षेत्र में मलेरिया के हजारों मामले सामने आते थे, अब लगातार जागरूकता, दवा वितरण और स्प्रे अभियान से इन मामलों में कमी देखी जा रही है।
भारत सरकार ने भी मलेरिया नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम चला रखा है। इस रिसर्च लैब की खोजें उन कार्यक्रमों को और प्रभावी बनाने में मददगार साबित हो रही हैं।
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DDT पर रोक, नई दवा से उम्मीद
पहले भारत में मच्छरों को खत्म करने के लिए DDT का छिड़काव किया जाता था। लेकिन वैज्ञानिकों ने पाया कि लंबे समय तक इस्तेमाल के कारण मच्छरों ने इसके प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। इस वजह से अब स्वास्थ्य विभाग अल्फा सायपरमेथ्रिन नामक नई दवा का इस्तेमाल कर रहा है। यह दवा ज्यादा प्रभावी है और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इसके उपयोग की सिफारिश की है।
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मच्छरों से जंग में रिसर्च की अहमियत
मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी बीमारियां सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए चुनौती हैं। लाखों लोग हर साल इन बीमारियों से प्रभावित होते हैं। ऐसे में रायपुर जैसी लैब वैश्विक स्तर पर भी अहम भूमिका निभा सकती है। यहां से मिलने वाली जानकारियां नई दवाओं, टीकों और रोकथाम की योजनाओं के लिए आधार बन सकती हैं।