छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के बसना थाना क्षेत्र में एक बेहद संवेदनशील और लंबा चला न्यायिक मामला अब आखिरकार अपने निष्कर्ष पर पहुंचा है। रिश्वत लेने के आरोप में फंसे तत्कालीन थाना प्रभारी गणेशराम शेंडे को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट से बड़ी राहत मिली है। लगभग 26 वर्षों तक चली इस कानूनी लड़ाई में अब जाकर दिवंगत थाना प्रभारी को न्याय मिला है।
क्या था मामला
पूरा मामला 8 अप्रैल 1990 को शुरू हुआ था, जब ग्राम थुरीकोना निवासी जैतराम साहू ने सहनी राम, नकुल और भीमलाल साहू के खिलाफ मारपीट की शिकायत दर्ज कराई थी। पुलिस ने मामला दर्ज करते हुए तीनों आरोपियों को आईपीसी की धारा 324 के तहत उसी दिन मुचलके पर रिहा कर दिया। धारा 324 एक जमानती अपराध है, ऐसे में गिरफ्तार किए गए आरोपियों को उसी दिन कानूनी प्रक्रिया के तहत छोड़ा गया।
लेकिन दो दिन बाद, 10 अप्रैल 1990 को एक नया मोड़ आया। आरोपियों में से एक भीमलाल साहू ने रायपुर लोकायुक्त एसपी को शिकायत दी कि उसे और अन्य आरोपियों को रिहा करने के एवज में तत्कालीन थाना प्रभारी गणेशराम शेंडे ने एक हजार रुपए रिश्वत मांगी थी। इस शिकायत के बाद लोकायुक्त टीम ने रेड की और गणेशराम शेंडे को रंगे हाथों रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार किया गया।
ट्रायल कोर्ट ने सुनाई थी सजा
इस कार्रवाई के बाद गणेशराम शेंडे के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7, 13(1)(डी) और 13(2) के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। 1999 में ट्रायल कोर्ट ने शेंडे को दोषी करार देते हुए तीन साल की सजा और 2000 रुपए का जुर्माना सुनाया।
शेंडे ने इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील दायर की, लेकिन मामले के निपटारे से पहले ही उनका निधन हो गया। इसके बाद उनकी पत्नी ने न्याय की इस लड़ाई को आगे बढ़ाया और वर्षों तक अपने पति की बेगुनाही को साबित करने के लिए संघर्ष करती रहीं।
हाईकोर्ट का फैसला: आरोपों में नहीं था दम
अब इस केस की सुनवाई करते हुए छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस संजय अग्रवाल ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को निरस्त कर दिया है। कोर्ट ने माना कि जिस रिश्वत की बात कही गई, उसका कोई औचित्य नहीं बनता क्योंकि आरोपियों को पहले ही 8 अप्रैल की शाम को जमानत मिल चुकी थी। ऐसे में दो दिन बाद उसी जमानत के बदले पैसे की मांग करने का आरोप असंभव प्रतीत होता है।
कोर्ट ने यह भी माना कि शिकायतकर्ता भीमलाल साहू खुद थाना प्रभारी से नाराज था क्योंकि उसने भी मामले में दूसरी ओर के खिलाफ शिकायत दी थी जिस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई थी। ऐसे में यह आशंका प्रबल है कि व्यक्तिगत नाराजगी के कारण ही यह शिकायत दर्ज कराई गई हो।
गवाहों और दस्तावेजों से नहीं मिला समर्थन
हाईकोर्ट ने दस्तावेजों और गवाहों के बयान का विश्लेषण करते हुए पाया कि अभियोजन पक्ष रिश्वत की मांग को साबित नहीं कर सका। ट्रैप की कार्यवाही भी परिस्थितियों के अनुसार संदेहास्पद पाई गई। जब्त की गई रकम का भी कोई वैधानिक आधार नहीं पाया गया।
पत्नी की जिद और हौसले ने दिलाया न्याय
इस पूरे मामले में सबसे बड़ी बात यह रही कि गणेशराम शेंडे की मृत्यु के बाद भी उनकी पत्नी ने हार नहीं मानी। उन्होंने न्याय के लिए 26 साल तक लड़ाई लड़ी और अंततः हाईकोर्ट ने सच्चाई के पक्ष में फैसला सुनाया। यह फैसला न केवल एक ईमानदार पुलिस अधिकारी की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करता है, बल्कि यह भी संदेश देता है कि झूठे आरोपों के खिलाफ लड़ाई देर से सही लेकिन जीत की ओर जाती है।