छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक कांस्टेबल की उस पुनरीक्षण याचिका को सख्ती से खारिज कर दिया है, जिसमें उसने अपनी 6 वर्षीय बेटी को भरण-पोषण देने से इनकार किया था। कोर्ट ने कहा कि पिता होने के नाते यह उसकी नैतिक और कानूनी जिम्मेदारी है कि वह बेटी की परवरिश में आर्थिक सहयोग दे। हाईकोर्ट ने स्पष्ट कहा कि फैमिली कोर्ट का आदेश पूरी तरह से वैधानिक है और उसमें हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है।
क्या है मामला?
बलरामपुर जिले का निवासी याचिकाकर्ता वर्तमान में कोण्डागांव पुलिस बल में कांस्टेबल के पद पर तैनात है। उसकी पत्नी, जो अंबिकापुर की रहने वाली है, ने पारिवारिक न्यायालय में भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की मांग करते हुए याचिका दाखिल की थी। महिला ने पति पर मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना, साथ छोड़ने और 6 साल की बेटी की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ने जैसे गंभीर आरोप लगाए थे।
पत्नी ने याचिका में 30,000 रुपये प्रतिमाह भरण-पोषण की मांग की थी, लेकिन फैमिली कोर्ट ने 9 जून 2025 को सुनाए गए फैसले में पत्नी की मांग को अस्वीकार करते हुए केवल बेटी के पक्ष में 5,000 रुपये प्रतिमाह भरण-पोषण देने का आदेश दिया था।
कांस्टेबल ने लगाई थी हाईकोर्ट में गुहार
फैमिली कोर्ट के इस आदेश को कांस्टेबल ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में चुनौती दी। कांस्टेबल की ओर से अदालत में यह तर्क रखा गया कि वह HIV संक्रमित है और उसके इलाज में प्रतिमाह भारी खर्च आता है, जिससे आर्थिक स्थिति कमजोर है। इसके अलावा उसने दावा किया कि जिस बच्ची को लेकर भरण-पोषण का आदेश दिया गया है, वह उसकी संतान ही नहीं है, इसलिए वह उस पर खर्च नहीं कर सकता।
हाईकोर्ट ने ठुकराया तर्क
हालांकि, याचिकाकर्ता यह साबित करने में असफल रहा कि बच्ची उसकी संतान नहीं है। चीफ जस्टिस रमेश कुमार सिन्हा की एकल पीठ ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि फैमिली कोर्ट ने साक्ष्यों और बयानों के आधार पर फैसला सुनाया था, जिसमें कोई कानूनी या तथ्यात्मक त्रुटि नहीं है।
अदालत ने टिप्पणी करते हुए कहा कि बच्ची के भरण-पोषण से मुंह मोड़ना किसी भी पिता के लिए न तो नैतिक रूप से उचित है और न ही कानूनी रूप से स्वीकार्य। यह एक अनैतिक और गैर-जिम्मेदाराना कृत्य है।
हाईकोर्ट का सख्त संदेश
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का यह फैसला उन सभी मामलों के लिए नजीर बन सकता है, जहां पति या पिता अपने दायित्वों से बचने की कोशिश करते हैं। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि नाबालिग बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी से भागना भारतीय समाज और कानून, दोनों के मूल्यों के खिलाफ है।
हाईकोर्ट ने पुनरीक्षण याचिका खारिज करते हुए फैमिली कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा और स्पष्ट संदेश दिया कि एक पिता अपनी संतान की जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकता।